Tuesday, November 3, 2009

कुंवारी बेटी

कौन सा पाप हुआ था मुझसे

कि बेटी बैठी कुंवारी अब तक

दौड़ पड़ा जहाँ सुनी आहट

कहाँ कहाँ न दे दी दस्तक

द्वार पे सबके सर को झुकाया

निज सम्मान को भी गवाया

फिर भी हुआ न कोई द्रवित

होगा कौन और मुझसा पीड़ित

मन्नत माँगा मिन्नत किए

अपमानों के घूँट पिए

जीना कितना दूभर होता जब

क्वांरी बेटी के साथ जिए

समाज से भी छिपना पड़ता

और बहुत कुछ छिपाना पड़ता

अनेको कड़वे सच को भी

बेटी से झूठलाना पड़ता

अब आना-जाना नही सुहाता

बेबस हर पल दिल घबराता

देख मलिन चेहरा बेटी का

इस दुनिया में रहा न जाता !

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