Saturday, November 7, 2009

ऐसी मारा-मारी

हम भूल गायें उन वीरों को और भूल चुके उनकी बलिदानी

अब याद नही रहता हमको उनकी वीर गाथा और कहानी

क्यूं रोमांचीत नही होते हम और खौलता नही रक्त हमारा ?

कहाँ गयी वह राष्ट्र भावना कहाँ गम हुआ देश हमारा ?

गोली खाने वाले सीने रक्षा करने वाले हाथ

दशकों पहले छोड़ चुके क्यूँ अपना साथ ?

लूट रहे हम सब मिलकर के भारत माता के चीर को

कैसे दोष दे दें भला किसी द्युतानुरागी युधिस्ठिर को !

यह कैसी अंधी दौड़ लगी है , सब पड़-पैसे की माया है,

तू मातृभूमी की सोच रहा, अबे किस जहाँ से आया है ?

ख़ुद से आगे नहीं सोचते, ख़ुद को खुदा समझते हैं

अब ख़ुद ही के लिए जीते हैं, ख़ुद के लिए ही मरते हैं !

यह खुदगर्जी महँगी है , एक दिन पड़ेगी भारी

एक निशान भी नही बचेगा , फिर भी ऐसी मारा-मारी !

तुम्हारा दर्द

कितना दर्द हुआ होगा तुझे मुझको नकारने में

कितना तडपे होगे तुम और कितना रोये होगे

कितनी रातें जागते हुई बीती होंगी

और बार बार ख़ुद की बातों पर पछताए होगे

कितना कड़ा किए होगे दिल को अपने

मुझ पर बेरुखी दिखाने के पहले

और फिर फिर याद आ ही जाती होंगी

सारी बातें भूलने के पहले

कैसे अपने चेहरे को छुपा लिया होगा

लाख पूछने पर भी न बताया होगा

दिल में धधकती लपटों को

अब तक न बुझाया होगा

मेरा चेहरा आ जता होगा बार-बार

तुम्हारी नज़रों के सामने

मैं मुस्कुराता हुआ समझा रहा होऊंगा

कुछ भी ग़लत नही किया आपने

हर बात की उम्मीद रखूँ आपसे

और आप सारी उमीदों को पूरी करें

ऐसी नादानी-भरी बातों का क्या

क्यों न इन बातों से दूरी करें ?

मगर फिर जल्दी ही देखा होगा तुमने

नही यहाँ और कोई भी मेरे सिवा

और उसको ही मार डाला हमने

jiska koee nahee thaa mere सिवा

Tuesday, November 3, 2009

बेतुकी बातें

बचना ऐसे लोगो से जो करते रहते मीठी बातें
सपने दिखाते दिन में जैसे हो लम्बी रातें
बचना ऐसे यारों से जो करते सिर्फ़ अपनी बातें
अमिता जी का क्या कहना सब इनकी सौगातें

कुंवारी बेटी

कौन सा पाप हुआ था मुझसे

कि बेटी बैठी कुंवारी अब तक

दौड़ पड़ा जहाँ सुनी आहट

कहाँ कहाँ न दे दी दस्तक

द्वार पे सबके सर को झुकाया

निज सम्मान को भी गवाया

फिर भी हुआ न कोई द्रवित

होगा कौन और मुझसा पीड़ित

मन्नत माँगा मिन्नत किए

अपमानों के घूँट पिए

जीना कितना दूभर होता जब

क्वांरी बेटी के साथ जिए

समाज से भी छिपना पड़ता

और बहुत कुछ छिपाना पड़ता

अनेको कड़वे सच को भी

बेटी से झूठलाना पड़ता

अब आना-जाना नही सुहाता

बेबस हर पल दिल घबराता

देख मलिन चेहरा बेटी का

इस दुनिया में रहा न जाता !

ऐसा जीवन

है जब तक कायम सांसो की डोर

और हाथों में है अपना जोर

किस बात का कैसा डर ?

सारी दुनिया अपना घर,

अपने कदमों के निशान,

बन जायें अपनी पहचान

देख कर के सोचें लोग

है कोई ऐसा इंसान

अपनी धुन में बढ़ता जाए

राहें अपनी स्वयं बनाये

उस पार आ कर देखे तो

इस पार के सच को जान जाए

है क्या रक्खा उन बातो में

जो देते पल भर की राहत

जीवन का कुछ मतलब हो

है ऐसे जीवन की चाहत

Friday, May 8, 2009

ज़माने की फिक्र है जिन्हें वो डरते है ज़माने से

अपने को मतलब नही इस पागलखाने से

वाकई कुछ और भी पागल है मेरे सिवा इस जहाँ में

समझते है ख़ुद को जो सबसे जुदा इस जहाँ में

हद तक जज्बा है जिनमे जीने की इस जहाँ में

जो बेदाग हैं बने हुए इस दागी जहाँ में

है माद्दा जिनमे बदलने की इस जहाँ को

परवाह नही है जिनको इस जहाँ की

रहतें हैं जो इसी जहाँ में कहीं

लगते नहीं हैं पर जो इस जहाँ की